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हरड़ (हरीतकी) के लाभ, प्रयोग, मात्रा एवं दुष्प्रभाव

आयुर्वेद चिकित्सा में हरीतकी अमृत के समान एक बहुत ही प्रभावशाली औषधि मानी गयी है। इसका वानस्पतिक नाम Terminalia Chebula है और आम बोलचाल की हिंदी भाषा में इसे हरड़ या हर्रे भी कहते हैं। इसके अतिरिक्त आयुर्वेद साहित्य में इस औषधि को विभिन्न नामों से जाना जाता है जैसे विजया, कायस्था, अमृता, प्राणदा आदि। मुख्य रूप से हरीतकी के वृक्ष पांच हज़ार फ़ुट की ऊंचाई पर पाए जाते है और विशेषकर भारत में यह हिमालय क्षेत्र में रावी तट से लेकर पूर्व बंगाल आसाम तक पाए जाते हैं। इसके वृक्ष बहुत ऊँचे (60 फ़ुट से 80 फ़ुट तक) होते हैं।

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हरीतकी की जातियां

हरीतकी को सात जातियों में विभाजित किया गया है:

  1. विजया
  2. रोहिणी
  3. पूतना
  4. अमृता
  5. अभया
  6. जीवन्ती
  7. चेतकी

हरड़ दो प्रकार की होती हैं:-

  • छोटी हरड़
  • बड़ी हरड़

हरड़ का उपयोग सभी प्रकार के पेट के रोगों, बवासीर, पेट के कीड़ों, गुल्म आदि के लिए किया जाता है।

आयुर्वेदिक गुण धर्म

रस (Taste) पञ्चरस (लवणवजित), कषायप्रधान
गुण (Property) लघु, रुक्ष
वीर्य (Potency) उष्ण
विपाक (Metabolic Property) मधुर
दोष कर्म (Dosha Action) त्रिदोषहर, विशेषत: वातशामक

हरड़ गंधहीन और स्वाद में तीखी होती है और यह एक एक सौम्य, कषाय प्रधान, बलवर्धक, त्रिदोषहर, अनुलोमक और विरेचक औषधि है। यह आँतों की सफाई करती है, जिसके कारण पेट के सभी विकार दूर होते है। शरीर से मल निष्कासन को सुचारु बनाती है जिससे कारण रोगी को दूषित आँतों के कारण होने वाले सभी विकारों में आराम मिलता है।

औषधीय गुण

  • बल्य
  • मेध्य
  • चक्षु
  • दीपन – जठराग्नि को प्रदिप्त करता है
  • पाचन – पाचन शक्ति बढाने वाली, भोजन पचाने में सहायक
  • यकृदुत्तेजक
  • अनुलोमन
  • मृदुरेचक
  • कृमिघ्न
  • क्षुधा वर्धक – भूख बढ़ाने वाली
  • कब्ज दूर करती है
  • त्वचा सम्बन्धी रोगों में लाभ
  • सेवन से त्वचा में निखार आता है
  • पेट की सूजन दूर करती है
  • सर्दी, खांसी , छाती की जकड़न
  • यकृत विकार के शुरुआत में उपयोगी
  • हृदय
  • शोणितस्थपन
  • शोथहर
  • कफघ्न
  • मूत्रल
  • वृषय
  • गर्भाशयशोथहर
  • प्रजास्थापन
  • कुष्ठधन
  • विष प्रभाव को दूर करती है
  • नेत्र विकार में लाभ
  • पेट दर्द
  • उलटी को रोकती है
  • संग्रहणी के दर्द में आराम
  • अतिसार (दस्त)
  • बवासीर में लाभ
  • गुल्म का नाश
  • थकान नहीं होती और स्फूर्ति बनी रहती है
  • पेट के कीड़ों का नाश
  • खुजली से छुटकारा
  • घाव ठीक करने में लाभदायक

हरड़ का सेवन करने से पित्त कम हो जाता है और पेट की क्रियाएँ व्यवस्थित हो जाती हैं। इसके सेवन से बड़ी आंत में रुका हुआ मल बाहर निकलता है, गैस शरीर से निकल जाती है और पेट को आराम मिलता है।

संस्थानिक कर्म (ब्रह्म प्रयोग)

  • शोथहर
  • वेदना स्थापन
  • व्रण शोधन
  • व्रण रोपण

चिकित्सीय संकेत

हरड़ का सेवन निम्नलिखित रोगों और लक्षणों में किया जाता है।

  • नाड़ीदोबल्य
  • मस्तिष्कदोबल्य
  • अग्निमांद्य
  • शूल
  • आनाह
  • गुल्म
  • विबन्ध
  • उदररोग
  • अर्श
  • कामला
  • यकृतप्लीहा
  • कृमि
  • वातरक्त
  • रक्तविकार
  • शोथ
  • प्रतिश्याय
  • कास
  • स्वरभेद
  • हिक्का
  • श्वास – दमा (अस्थमा)
  • मूत्रकृच्छ
  • मुत्रघात
  • अश्मरी
  • प्रमेह
  • शुऋमेह
  • श्वेतप्रदर
  • गर्भाशयदौबल्य
  • कुष्ठ रोग
  • विसर्प
  • पेट में दर्द और ऐंठन
  • पेट में गैस
  • भूख ना लगाना
  • उल्टी
  • पेट फूलना
  • संग्रहणी शूल
  • अतिसार
  • बवासीर
  • गुल्म
  • पेट में कृमि
  • कब्ज

हरड़ (हरीतकी) के लाभ एवं प्रयोग

हरड़ को मुख्य रूप से पेट के रोगों और उससे सम्बंधित विकारों के लिए उपयोग किया जाता है। इसका सेवन करने से पाचन तंत्र ठीक काम करता है, मल निष्कासन सुचारु होता है। जिससे पेट से सम्बंधित अन्य रोग जैसे कब्ज, बवासीर, अतिसार, संग्रहणी आदि में लाभ मिलता है।

पेट के विकार – पेट दर्द, गैस बनना आदि

पेट के सभी विकारों में हरड़ का उपयोग किया जाता है। हरड़ का सेवन सेवन करने से आँतों में जमा मल बाहर आ जाता है, जिसके कारण पेट में होने वाले दर्द, मरोड़ और गैस से छुटकारा मिलता है और पेट में आराम मिलने से रोगी को भूख लग्न लगती है और उसकी पाचन क्रिया भी ठीक हो जाती है।

दस्त

दिन में दो से तीन बार कच्ची हरड़ की चटनी का उपयोग करने दस्त में आराम मिलता है। इसका सेवन करने से शरीर और मलाशय के विकार दूर होते हैं जिससे दस्त बंद हो जाते हैं।

पाचन शक्ति बढ़ाने के लिए

कमजोर पाचन वाले रोगियों को आम के कारण भोजन ठीक से पचता नहीं है। इन रोगियों को हरड़ गर्म पानी के साथ देने से उनका पाचन क्षमता ठीक होती है। भोजन अच्छी तरह पचने लगता है और भूख भी खुल जाती है।

बवासीर

बवासीर के रोगी को हरड़ का सेवन कराने से उसकी पाचन क्रिया व्यवस्थित हो जाती है। उसका पित्त कम हो जाता है, जिसके फलस्वरूप मस्सों का उभारना और शिराओं का फूलना बंद हो जाता है। इस विकार में रोगी को मल त्याग करने में भी बहुत परेशानी और कष्ट होता है। इसके लिए भी हरड़ का उपयोग किया जाता है। हरड़ के चूर्ण को पानी में मिलाकर स्थान की सिंकाई करने से सूजन कम हो जाती और मस्सों के घाव भी भरने लगते हैं।

उदर कृमि – पेट के कीड़े

पेट के कीड़ों की समस्या में हरड़ का सेवन किया जाता है। हरड़ का सेवन करने से आँतों में जमा मल बाहर निकल जाता है, साथ ही दूषित गैस भी निकल जाती है और कीड़ों के साथ साथ पेट दर्द और मरोड़ से भी छुटकारा मिलता है।

सूजन के विकार

कफ दोष के कारण रोगी में सूजन का प्रभाव देखने को मिलता है। इस विकार में हरड़ को गौ मूत्र सत्व के साथ देने से सूजन में आराम मिलता है।

मात्रा और अनुपान

हरड़ के चूर्ण को आवश्यकतानुसार दिन में 2 से 3 बार, 3 से 5 ग्राम की मात्रा में लिया जा सकता है।

कब्ज में इसे चूर्ण बनाकर या डेढ़ से तीन ग्राम की हरड़ हो घी में सेंक कर शहद या सेंधा नमक के साथ दें।

अतिसार में हरड़ को उबालकर और संग्रहणी में हरड़ के चूर्ण को गर्म पानी के साथ दें।

बवासीर में या खुनी पेचिश के रोगी को हरड़ के चूर्ण को गुड़ और गौ मूत्र में मिलाकर रात भर के लिए रख दें और फिर सुबह उसको पिलायें या हरड़ के चूर्ण को दही और मट्ठे के साथ दें।

बवासीर की सूजन कम करने के लिए सूजन वाली जगह हरड़ पानी में पीसकर लगायें।

आँतों के विकार के रोगी को हरड़ का भून कर सेवन करायें।

इसके अतिरिक्त हरड़ के अन्य उपयोग भी हैं जैसे व्रण पर हरड़ पीस कर उसका लेप लगायें और मुँह के छालों में हरड़ के काढ़े का कुल्ला करें।

हरड़ (हरीतकी) को विभिन्न ऋतुओं में अलग अलग अनुपानों के साथ लिए जाता है। जैसे वर्षा ऋतू में सेंधा नमक, शरद ऋतू में शक्कर, हेमंत ऋतू में सोंठ, शिशिर ऋतू में पीपल और बसंत ऋतू में शहद के साथ।

सावधानी

विशेष रूप से कमजोर और दुर्बल व्यक्तियों, अवसाद ग्रस्त रोगियों, जिन रोगियों का पित्त अधिक हो और गर्भवती स्त्रियों को इसका सेवन नहीं करना चाहिए। शिशुओं और पांच वर्ष से कम के बच्चों को इसे नहीं देना चाहिए, यदि देने की आवश्यकता हो तो सिर्फ चिकित्सक की निगरानी में ही दें।

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